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Wednesday, June 1, 2016

वो पुराने सूखे हुए दरख़्त!

बहुत दिन हुए,अब लगता है आओ चलते है,
उस पुरानी गली मे उस पुराने घर की ओर आज मुड़ते है

गली कुछ सिमटी सहमी से अब लगती है,वो चहल पहल कही गुम है,
वो पुराने दरख़्त अब सूख गये है,डालो पर पंछी भी अब कम है

गली की वो धूल अब कहाँ मेरे पैरों को छूती है,
वो बारिश के पानी की मिठास अब कहाँ कही होती है

यही खेला था,यही गिरा था मैं चलते चलते,
अब वैसी ठोकर के इंतेज़ार मे दिन है बनते गुज़रते 

टायर की उस रफ़्तार मे घूमता था बचपन वो सुहाना,
कुल्फी और होली की राह  देखता था तब मन दीवाना

एक नज़र पुराने घर पर गयी,और लगा कोई आवाज़ देता है.
वो पुराने सूखे हुए दरख़्त से मानो लगा अब भी कोई ‘मैं’ झूलता है.

ज़िंदगी के आशियाने मे कुछ मोड़ पीछे रह गये है,
पर एक सास भर और उस घड़ी मे लेने को मान होता है.

दोस्तों को नही ढूंढता की मालूम है मेरा बचपन नही रहता यहा अब,
कोई खिड़की खोल दे मौला कभी तो मिल आऊँ उनसे सब.

गहरी है यादों की ये नदी,डूबने को मान करता है.
उस पुराने सूखे हुए दरख़्त से फिर बातें करने का मान करता है.

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